परांठे वाली गली – वो जगह जहाँ दिल्ली के इतिहास में घी टपकता है

पुरानी दिल्ली की भीड़-भाड़ में, लाल किले से कुछ ही कदम दूर, एक गली है जो अपने आप में एक अलग दुनिया है। इसका नाम है ,परांठे वाली गली। बाहर से देखने पर यह बस एक तंग, सीधी-सी गली लगेगी, लेकिन जैसे ही आप इसमें कदम रखते हैं, हवा में घुली देसी घी की खुशबू और तवे पर पड़ते परांठों की चटचटाहट आपको खींचकर बैठा देगी।
इस गली की कहानी 19वीं सदी के मध्य में शुरू होती है, जब लाला चानी मल नाम के एक पंजाबी व्यापारी ने यहाँ पहली परांठे की दुकान खोली। उस दौर में परांठा कोई मामूली नाश्ता नहीं था — यह एक शाही पकवान माना जाता था, जिसे घरों में बड़े मौकों पर बनाया जाता था। लाला चानी मल ने सोचा, क्यों न इस शाही पकवान को आम लोगों तक पहुँचाया जाए, और वह भी ऐसा कि लोग इसे भूल न पाएं। बस, यहीं से शुरू हुआ इस गली का सुनहरा सफर।
पहले यहाँ सिर्फ कुछ दुकानें थीं, लेकिन धीरे-धीरे परांठों की ऐसी चर्चा हुई कि गली में एक के बाद एक दुकानें खुलने लगीं। यह परांठे साधारण नहीं थे — इनके भीतर सिर्फ आलू या पनीर नहीं, बल्कि सूखे मेवे, मटर, गाजर, मूली, पालक, दाल, यहाँ तक कि खजूर और किशमिश तक भरे जाते। हर परांठा मोटा, गोल और इतना भरवां होता कि एक खाकर आप कसम खा लें कि अगली बार दिल्ली आकर फिर यहीं खाएँगे।
कहते हैं कि जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, और यहाँ तक कि देश-विदेश के कई नेता और फिल्मी सितारे भी यहाँ परांठे खाने आ चुके हैं। दुकानों की दीवारों पर उनकी पुरानी तस्वीरें टंगी हैं — कुछ ब्लैक एंड वाइट, कुछ फीकी हो चुकीं, लेकिन सब अपने समय की गवाही देती हैं।
दुकानों का माहौल भी किसी टाइम मशीन जैसा है। लकड़ी की बेंचें, पीतल के गिलास, और बड़े-बड़े तवे, जिन पर देसी घी में तैरते परांठे सुनहरे होते हैं। परांठा प्लेट में आते ही उसके साथ मिलते हैं तीन-चार तरह के सब्ज़ी वाले करी, एक मीठा सा कद्दू का सब्ज़, अचार, और कभी-कभी केसर वाली लस्सी। पहला निवाला मुँह में जाते ही आपको समझ आ जाएगा कि यह गली सिर्फ खाना नहीं परोसती, यह एक याद बनाती है।
बरसात के दिनों में यहाँ बैठकर गरमागरम आलू-पनीर का परांठा और साथ में मीठी चटनी… यकीन मानिए, यह दिल्ली का अपना “कम्फर्ट फूड” है। सुबह से रात तक इस गली में भीड़ लगी रहती है। दुकानदार की ऊँची आवाज़ में “आइए-आइए, गरम परांठा तैयार है!” और तवे की चटचटाहट एक साथ मिलकर एक अलग ही राग बनाती है।
एक समय ऐसा था जब यहाँ 20 से ज़्यादा परांठे की दुकानें थीं। हर दुकान की अपनी खासियत, अपना स्वाद, और अपनी गुप्त रेसिपी। आज भले ही इनकी संख्या कम होकर कुछ ही रह गई हो, लेकिन स्वाद और रौनक अब भी वही है। दुकानों का संचालन अब भी वही परिवार करता है, जिनके बुजुर्गों ने कभी इस गली की नींव रखी थी।
पर्यटक गाइड इसे पुरानी दिल्ली के “क्राउन ज्वेल” कहते हैं, और सही भी है। यहाँ आने वाला हर शख्स सिर्फ पेट भरकर नहीं जाता — वो एक किस्सा लेकर जाता है। कोई अपने कैमरे में तस्वीरें, कोई अपने मोबाइल में वीडियो, और कोई बस अपने मन में वो महक जो हर बार दिल्ली का नाम सुनते ही याद आ जाती है।
परांठे वाली गली का जादू यही है — यहाँ आकर आपको लगता है कि आप दिल्ली के इतिहास के एक स्वादिष्ट पन्ने में बैठ गए हैं। यहाँ का हर निवाला, हर खुशबू, हर आवाज़, आपको यह एहसास कराती है कि आप सिर्फ खाना नहीं खा रहे, आप सदियों पुरानी परंपरा को जी रहे हैं।
और यही वजह है कि चाहे आप पहली बार पुरानी दिल्ली आएँ या सौवीं बार, इस गली में कदम रखते ही दिल कहता है — “चलो, एक और परांठा हो जाए।”
#परांठे वाली गली