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मौत, मां, बाप और मोहम्मद मुस्तफ़ा ﷺ की शफ़ाअत

मौत, मां, बाप और मोहम्मद मुस्तफ़ा ﷺ की शफ़ाअतमौत, मां, बाप और मोहम्मद मुस्तफ़ा ﷺ की शफ़ाअत

इंसान की ज़िंदगी एक सफ़र है।

यह सफ़र कभी आसान लगता है, कभी मुश्किल।

कभी दिल में सुकून भर देता है, तो कभी रूह को बेचैनी में डाल देता है।

लेकिन इस पूरे सफ़र में तीन बड़े सच हर इंसान के सामने खड़े रहते हैं—

मौत, माँ-बाप और आखिरत।

मौत का खौफ़ और इंसान की सोच

मौत का नाम आते ही बहुत से दिल कांप जाते हैं।

जिस्म का लहू तेज़ बहने लगता है।

रगों में एक अजीब सी ठंडक दौड़ जाती है।

क्योंकि मौत हर ज़िंदा के लिए लाज़मी है।

कुरआन में अल्लाह तआला फ़रमाता है:

“कुल्लु नफ़्सिन ज़ाइकतुल मौत” –

हर जान को मौत का मज़ा चखना है।

मगर जो मौत को समझ लेता है,

जो मौत को अपनी मंज़िल मान लेता है,

उसके लिए मौत खौफ़ नहीं, बल्कि राहत का दरवाज़ा बन जाती है।

मां की मौजूदगी और बाप का डर

घर में मां की मौजूदगी सबकुछ बदल देती है।

मां सिर्फ़ मां नहीं, रहमत का साया है।

उसके कदमों तले जन्नत है।

वो दुआओं की चादर ओढ़ा देती है।

वो अल्लाह से अपने बच्चों के लिए रहमतें मांगती है।

जब घर में मां होती है तो इंसान को सहारा मिलता है।

मां का दामन पकड़े बच्चा हर तुफ़ान से निकल जाता है।

इसी लिए कहा गया है:

“मां की मौजूदगी में बाप का डर नहीं रहता।”

क्योंकि मां बच्चों के लिए ढाल है।

बाप डांटता है, तो मां सीने से लगाती है।

बाप सख़्ती करता है, तो मां रहमत का मरहम लगाती है।

कब्र और हश्र की हकीकत

लेकिन इंसान सिर्फ़ दुनिया के रिश्तों पर नहीं जीता।

इससे आगे भी एक सफ़र है।

मौत के बाद कब्र है।

कब्र में तन्हाई है।

सवाल-जवाब है।

रूह का इंतिहान है।

फिर हश्र का मैदान है।

जहां हर कोई अपने आमाल के साथ खड़ा होगा।

कोई अपना सहारा न होगा।

न मां काम आएगी, न बाप, न औलाद।

हर कोई अपने किए हुए आमाल का बोझ उठाए होगा।

मोहम्मद मुस्तफ़ा ﷺ की शफ़ाअत

लेकिन उस दिन एक सहारा ज़रूर होगा।

वो सहारा, जो सारी उम्मत की रहमत बनकर आएगा।

वो हैं हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा ﷺ।

हश्र के मैदान में जब सूरज सर पर होगा,

लोग पसीने में डूबे होंगे,

डर और खौफ़ से कांप रहे होंगे—

तब हर कोई यही कहेगा:

“नफ़्सी, नफ़्सी” (मेरी जान, मेरी जान)।

मगर सिर्फ़ मोहम्मद मुस्तफ़ा ﷺ कहेंगे:

“उम्मती, उम्मती” (मेरी उम्मत, मेरी उम्मत)।

उनकी शफ़ाअत से गुनाहगारों की माफी होगी।

उनकी रहमत से अल्लाह के बंदों पर करम होगा।

उनकी वजह से हश्र का मैदान आसान हो जाएगा।

मौत से मोहब्बत क्यों?

अगर इंसान ये यक़ीन रखे कि मौत के बाद

कब्र में हज़रत मुस्तफ़ा ﷺ की ज़ियारत होगी,

हश्र में उनका सहारा मिलेगा,

क़यामत के दिन उनकी शफ़ाअत नसीब होगी—

तो मौत का खौफ़ नहीं रह जाता।

फिर मौत डर नहीं, बल्कि एक मिलन बन जाती है।

एक रूहानी सफ़र बन जाती है।

जहां मोहम्मद ﷺ का दीदार नसीब होगा।

नतीजा

इसलिए हमें ज़िंदगी में हमेशा नेक आमाल करने चाहिए।

मां-बाप की खिदमत करनी चाहिए।

मां की दुआएं लेनी चाहिए।

बाप की इज़्ज़त करनी चाहिए।

और सबसे बढ़कर मोहम्मद मुस्तफ़ा ﷺ की सुन्नत पर चलना चाहिए।

क्योंकि मौत से कोई नहीं बच सकता।

कब्र से कोई नहीं बच सकता।

हश्र से कोई नहीं बच सकता।

लेकिन मोहम्मद ﷺ की मोहब्बत और उनकी शफ़ाअत—

वही इंसान की सबसे बड़ी पनाह है।

🌹 दुआ यही है कि अल्लाह हमें मोहम्मद ﷺ की सच्ची मोहब्बत अता करे।

मां-बाप की खिदमत की तौफ़ीक़ दे।

और रोज़-ए-क़यामत हज़रत की शफ़ाअत नसीब करे। आमीन। 🌹

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